कुछ पतंगें ,
चाहती हैं।
उड़ना ,नापना फ़लक,
मगर उड़ नही पाती।
कभी माँजे की ,
कभी घिरनी की,
तो कभी हाथों की,
कमी रह जाती है।
कभी दुकानदार ही,
बेचता नहीं,
बस रख कर,
डिस्प्ले में ,
सजा देता है ।
जहाँ वो लुभाती है ,
सब को ,
करती है आकर्षित,
मगर जा नही पाती,
दायरे से बाहर,
और उड़ान ,
बस रह जाती ख्वाब।
कुछ पतंगे,
उड़ तो जाती है,
पर ऊंची उड़ान के ,
पहले उलझ जाती है,
किसी शज़र से ,
तार से ,या किसी बन्धन से,
फिर बस फड़फड़ा कर ,
रह जाती है ,मन मसोस कर,
कुछ चंद पलो में ही ,
कट कर गिर जाती ,
या तेज हवा में ,
बिखर जाती ,फट जाती।
चाहे जो हो ,पतंग बनती ,
ऊँची उड़ान के ख्वाब को लेकर ही ,
परन्तु ख्वाब कहाँ ,
कभी पूरे होते है ।
ख्वाब सबके ,
अधूरे ही होते है।
सो नियति कुछ भी हो,
पतंग बनना ही ,
सार्थकता है ,
चंद लम्हे ही सही,
किसी के लबो पर,
मुस्कान तो लाती ही है।
मुझे तो सच ,
पतंग कोई सी भी हो,
बाल सुलभ ,
असीम आनंद,
दिलाती है।
जब भी ,जो भी मिली ,
हर रंग की पतंग ,
हर किस्म की पतंग,
बहुत याद आती है।
बहुत याद आती है।
बहुत याद आती है।
**कलम घिसाई**
हैपी मकर संक्रांति ट्वेंटी ट्वेंटी
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