Tuesday, 14 January 2020

पतंगें

कुछ पतंगें ,

चाहती हैं।

उड़ना ,नापना फ़लक,

मगर उड़ नही पाती।

कभी माँजे की ,

कभी  घिरनी की,

तो कभी हाथों की,

कमी रह जाती है।

कभी दुकानदार ही,

बेचता नहीं,

बस रख कर,

डिस्प्ले में ,

सजा देता है ।

जहाँ वो लुभाती  है ,

सब को ,

करती है आकर्षित,

मगर जा नही पाती,

दायरे से बाहर,

और उड़ान ,

बस रह जाती ख्वाब।

कुछ पतंगे,

उड़ तो जाती है,

पर  ऊंची उड़ान के  ,

पहले उलझ जाती है,

किसी शज़र से ,

तार से ,या किसी बन्धन से,

 फिर बस फड़फड़ा कर ,

रह जाती है ,मन मसोस कर,


कुछ चंद पलो में ही ,

कट कर गिर  जाती ,

या तेज हवा में ,

बिखर जाती ,फट जाती।


चाहे जो हो ,पतंग बनती ,

ऊँची उड़ान के ख्वाब को लेकर ही ,

परन्तु ख्वाब कहाँ ,

कभी पूरे होते है ।

ख्वाब सबके ,

अधूरे  ही होते है।

सो नियति कुछ भी हो,

पतंग बनना ही ,

सार्थकता है , 

चंद लम्हे ही सही,

किसी के लबो पर,

मुस्कान तो लाती ही है।

मुझे तो सच ,

पतंग कोई सी भी हो,

बाल सुलभ ,

असीम आनंद,

दिलाती है।

जब भी ,जो भी मिली ,

हर रंग की पतंग ,

हर किस्म की पतंग,

बहुत याद आती है।

बहुत याद आती है।

बहुत याद आती है।

  


  **कलम घिसाई**


हैपी मकर संक्रांति   ट्वेंटी ट्वेंटी


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