Friday, 29 November 2024

कहानी सम्मान की परछाई

कहानी: सम्मान की परछाईं

सूरजप्रकाश  एक तेजतर्रार और ईमानदार अधिकारी थे। सरकारी महकमे में उनका नाम था। उनके निर्णय अंतिम और प्रभावशाली माने जाते थे। हर छोटे-बड़े अफसर, कर्मचारी और आम लोग उनकी तारीफ करते नहीं थकते। बड़े-बड़े मंचों पर उनका सम्मान होता, पत्रकार उनके इंटरव्यू लेने आते, और उनके कार्यक्षेत्र में लोग उन्हें किसी नायक से कम नहीं मानते थे।

प्रारंभिक वर्षों का वैभव

सूरजप्रकाश जब भी दफ्तर आते, लोग खड़े होकर उनका स्वागत करते। “सर, आप जैसा अधिकारी हमने आज तक नहीं देखा,” उनके अधीनस्थ अक्सर कहते। हर समारोह में उन्हें मुख्य अतिथि बनाया जाता। उनकी बेटी की शादी में मंत्री और बड़े व्यापारी तक आए थे। उस वक्त सूरजप्रकाश को यकीन हो गया था कि यह सम्मान उनके व्यक्तित्व और गुणों का फल है।

उनके भाषणों में प्रेरणा थी, निर्णयों में दृढ़ता और व्यक्तित्व में आकर्षण। हर कोई उनके साथ समय बिताना चाहता।

सेवानिवृत्ति की शुरुआत

60 वर्ष की आयु में उनका सेवानिवृत्ति समारोह बड़े धूमधाम से मनाया गया। फूलों की माला, बड़ी-बड़ी भाषणबाजियां, और ढेर सारे तोहफों ने सूरजप्रकाश को गदगद कर दिया। उन्होंने अपने विदाई भाषण में कहा, “यह सम्मान मेरे जीवन का सबसे बड़ा उपहार है। मैं हमेशा आप सबके बीच रहूंगा।”

लेकिन, जैसे ही वे घर लौटे, जीवन का असली अध्याय शुरू हुआ।

यथार्थ का सामना

कुछ महीनों तक तो लोग उन्हें फोन करते रहे, मिलने आते रहे, लेकिन धीरे-धीरे ये मुलाकातें और फोन बंद हो गए। एक दिन उन्होंने किसी कार्यक्रम में जाने के लिए अपने पुराने दफ्तर फोन किया, लेकिन उन्हें सूचित किया गया कि उनके स्थान पर नए अधिकारी को आमंत्रित किया गया है।

सूरजप्रकाश ने इसे संयोग समझा। लेकिन समय के साथ यह संयोग आदत में बदल गया। वे जिन लोगों को कभी 'दोस्त' मानते थे, वे अब उनसे बचने लगे। किसी कार्यक्रम में उनका नाम भूल से भी नहीं लिया जाता। उनके घर पर आने वाले मेहमानों की संख्या घटकर शून्य हो गई।

एक दिन उन्होंने अपने पुराने सचिव को फोन किया, “अरे मोहन, कैसे हो? घर आओ, साथ चाय पिएंगे।”
मोहन ने जवाब दिया, “सर, थोड़ा व्यस्त हूं। बाद में बात करते हैं।”

यह वही मोहन था जो सूरजप्रकाश के हर आदेश पर दौड़ा करता था।

आत्ममंथन का क्षण

सूरजप्रकाश को गहरा झटका लगा। वे अपने ड्राइंग रूम में अकेले बैठे थे। उनकी आंखें दीवार पर लगी उन तस्वीरों पर टिक गईं जिनमें उन्हें सम्मानित करते हुए दिखाया गया था।

“क्या यह सम्मान मेरा था? या इस कुर्सी का?” उन्होंने खुद से पूछा।

वे सोचने लगे कि जो लोग कभी उनके कदमों में झुके रहते थे, वे अब उनकी सुध तक क्यों नहीं ले रहे। क्या वे इतने बदल गए, या वे लोग हमेशा से ऐसे ही थे?

एक नई शुरुआत

सूरजप्रकाश ने अपने अनुभवों को लिखने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने जीवन के अच्छे-बुरे दिनों को कागज पर उतारा। उनकी किताब "सम्मान की परछाईं" प्रकाशित हुई और हिट हो गई।

अब वे सेमिनारों में आमंत्रित किए जाने लगे, लेकिन इस बार उनका सम्मान उनके ज्ञान और अनुभव के लिए था, न कि उनके पद के लिए। वे समझ गए थे कि असली सम्मान वह है जो आपके व्यक्तित्व और योगदान के लिए हो, न कि आपके पद के लिए।

निष्कर्ष

सूरजप्रकाश ने जीवन के इस सत्य को स्वीकार कर लिया:
"सम्मान की परछाईं हमेशा चमकदार होती है, लेकिन यह परछाईं उसी वक्त तक रहती है जब तक आप सत्ता की रोशनी में खड़े हैं। असली रोशनी आपके कर्म हैं, जो आपके साथ हमेशा रहती है।"

इस नई समझ ने उन्हें सच्चा सुख दिया, और वे अब अपने अनुभवों के माध्यम से दूसरों को भी जीवन के इस गूढ़ सत्य को समझाने का प्रयास करते हैं।


*कलम घिसाई*

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