Saturday, 23 November 2024

अनकही स्याही

कहानी: "अनकही स्याही"

रात के अंधेरे में दीपक की मद्धम रोशनी के सामने बैठा एक व्यक्ति अपनी डायरी के पन्नों पर शब्दों का मेला सजाए बैठा था। यह था विवेक, एक ऐसा साहित्यकार जो शब्दों का जादूगर तो था, पर उसकी जादूगरी का असर किसी पर नहीं होता था। समाज ने उसे अनदेखा कर दिया था, और अब वह खुद को असफल मान चुका था।

विवेक के कमरे में किताबों के ढेर थे। दीवारों पर महान साहित्यकारों के चित्र टंगे थे—मिर्ज़ा गालिब, प्रेमचंद, टैगोर। उनका सान्निध्य ही विवेक का सहारा था। वह कहता, "शब्द मेरी आत्मा हैं। इन्हें छोड़ना मेरे लिए मृत्यु समान है।"
लेकिन इन शब्दों का न कोई प्रकाशनकर्ता था और न कोई पाठक। उसने अपने लेख अनेक जगह भेजे, पर हर बार वही उत्तर आता, "आपकी शैली हमारी पाठक संख्या के अनुरूप नहीं है।"

एक दिन गाँव का अध्यापक, गोविंद, जो विवेक की लेखनी का आदान-प्रदान पढ़ता था, उसके पास आया। उसने कहा, "विवेक भाई, आपकी कहानियों में जो गहराई है, वो मैंने कहीं नहीं देखी। आपने मेरी ज़िंदगी बदली है।"
गोविंद ने सुझाव दिया कि विवेक अपनी रचनाओं को ऑनलाइन साझा करे। विवेक ने झिझकते हुए सोशल मीडिया का सहारा लिया।

धीरे-धीरे, उसकी कविताएँ और कहानियाँ पढ़ने वाले लोग मिलने लगे। लेकिन समस्या यह थी कि उसके लेख पढ़े जाते, परंतु उन्हें लाइक, शेयर और कमेंट नहीं मिलते। वह बार-बार अपना अकाउंट खोलता और खाली नोटिफिकेशन देखकर उदास हो जाता।

"क्या मेरे शब्द इतने कमजोर हैं कि लोग इन्हें पढ़कर भी अनदेखा कर देते हैं?" वह खुद से सवाल करता।

एक रात, जब उसके कई प्रयास विफल हो चुके थे, उसने अपनी डायरी में लिखा:
"मैं असफल हूँ। शायद मेरे शब्द किसी के लिए नहीं हैं। लेकिन फिर भी, मैं लिखना नहीं छोड़ सकता। यह मेरी नियति है।"

विवेक की उम्र बढ़ती गई, और वह दुनिया से और भी अधिक अलग-थलग हो गया। उसकी सेहत बिगड़ने लगी, लेकिन वह लिखना नहीं छोड़ता था। उसके कमरे की मेज पर डायरी का हर पन्ना भरा हुआ था।
एक दिन, जब वह अपनी मेज पर लिखते हुए सो गया, वह कभी नहीं उठा। उसके शब्द वहीं अधूरे रह गए।


उसके शोक सभा में गाँव के कुछ लोग और उसके कुछ पुराने विद्यार्थी आए। उनमें से एक था गोविंद, जिसने कभी विवेक की लेखनी को सराहा था। गोविंद ने उसकी डायरी और पुरानी रचनाएँ अपने पास रख लीं।

गोविंद ने तय किया कि वह विवेक के लेखन को दुनिया तक पहुँचाएगा। उसने विवेक की कहानियों और कविताओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया और सोशल मीडिया पर साझा करना शुरू किया। धीरे-धीरे, विवेक की रचनाएँ वायरल होने लगीं। लोग उसकी गहराई को पहचानने लगे।


कुछ महीनों बाद, विवेक की पुस्तक ने साहित्य जगत में अपनी जगह बनाई। उसे मरणोपरांत एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जिस व्यक्ति को उसकी ज़िंदगी में कभी पहचान नहीं मिली, उसे मरने के बाद वही समाज सराहने लगा।


विवेक भले ही इस दुनिया में न था, लेकिन उसके शब्द अब अमर हो चुके थे। गोविंद ने मंच पर विवेक के सम्मान में कहा:
"उनकी स्याही कभी अनकही नहीं थी, बस हम सुनने को तैयार नहीं थे। आज उनकी रचनाएँ हमें सिखा रही हैं कि शब्द अमर होते हैं।"

"स्याही चाहे कितनी ही अनदेखी क्यों न हो, उसका असर समय के साथ ज़रूर दिखता है।"

*कलम घिसाई*

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